राजस्थान, जिसका नाम स्वाधीनता के पूर्व राजपूताना था, के भूगोल में मारवाड़ वहां के एक प्रदेश-खण्ड का नाम है, जो वर्तमान जोधपुर अंचल में पड़ता है। उस विशेष प्रदेश-खण्ड के रहनेवालों को मारवाडी़ कहा जाता तो समझ में आनेवाली बात होती, किन्तु राजस्थान के बाहर विभिन्न प्रदेशों में राजस्थान अंचल के जिस अंचल के भी लोग आकर बस गये, उन सभी को मारवाडी़ नाम से जाना और समझा जाता है। और, इन समस्त प्रवासी राजस्थानियों को मारवाडी़ जाति या समाज के नाम अभिहित किया जाता है। इस प्रकार से इस शब्द का भौगोलिक और ऎतिहासिक अर्थबोध उतने महत्व का न रह कर सामाजिक अर्थबोध अधिक महत्व का हो गया है। यह कैसे हुआ, इसके बारे में बहुत प्रामाणिक ऎतिहासिक सामग्री तो उपलब्ध नहीं है, पर यह धारणा की जाती है कि मारवाडी़ शब्द की प्रसिद्धि बंगाल से हुई। सन् 1564 में जब सुलेमान किरानी बंगाल में राज करता था, तब से बंगाल में मारवाडी़ शब्द का प्रयोग होता मिलता है। जब घरेलु झगडो़ से तंग आकर उसने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली, तो अकबर ने उसकी साहयता के लिये अपनी सेना बंगाल में भेजी थी। उस सेना में मोदीखाने का काम सम्हालने के लिये कुछ वैश्य लोग आये थे। वे जोधपुर (मारवाड़) के थे। इन लोगों ने सेना को रसद पहूंचाने के लिये मोदीखाने का काम करते हुये दूसरे व्यापार-व्यवसाय का काम भी शुरू किया। चूंकि ये मारवाड़ से आये थे, इसलिये इनका नाम सेना में और फिर बाहर भी मारवाडी़ पड़ गया । ये लोग जैसे-जैसे यहां बसते गये, वैसे-वैसे अपने भाई-बन्धुऔं को बुलाते गये और कालान्तर में इनकी एक जाति या समाज बन गया। सन् 1605 में जयपुर के राजा मानसिंह अकबर की ओर से बंगाल आये । उनके हाथ में बडी़ सत्ता थी, जिससे मारवाडी़ जाति के व्यक्तियों को काफी सहायता मिली। ऎसा भी उल्लेख मिलता है कि उस वक्त कतिपय मारवाडि़यों को राज्यकार्य में भी स्थान मिला।
जॉब चार्नक' ने अपनी डायरी में लिखा था " हिन्दुस्थान में एक मारवाड़ी जाति ही ऎसी है जो अन्य सभी जातियों की अपेक्षा वाणिज्य-व्यापार करने में विशेष दक्ष और ईमानदार है। कम्पनी यदि चाहे तो मारवाडी़ जाति के व्यक्तियों से सहयोग प्राप्त कर अपने व्यापार का भारतवर्ष में अधिकाधिक प्रसार कर सकती है" उस जमाने में बीकानेर और शेखावटी अंचलों के लोग काफी संख्या में बंगाल में आकर बस गये। यहां बसने के वाबजूद भी इन लोगों ने अपनी भाषा, धर्म, वेशभूषा और संस्कृ्ति आदि के मामले में यहां के लोगों से बिलकुल अलग रहे। और जब तक उनका समाज काफी बडा़ नहीं हो गया, तब तक विवाह-संबन्ध भी ये राजस्थान जाकर ही करते थे। इस प्रकार के दृ्ष्टिकोण और परिस्थिति के कारण इन लोगों का सारा ध्यान व्यवसाय की ओर ही लगा रहा। व्यापार-व्यवसाय व उद्योग के क्षेत्र में विकास और उन्न्ति करने के लिये जो एकान्तिक मनोयोग एवं अध्यवसाय आवश्यक होता है, वह इस समाज का स्वाभाविक गुण बन गया। धीरे-धीरे सारा प्रवासी मारवाडी़ समाज अर्थ केंद्रित समाज बनकर रह गया, जिसके परिणामस्वरूप वर्षों तक यह समाज विद्या, कला एवं साहित्य आदि अन्य क्षेत्रों की समस्त उपलब्धियों से वंचित रह गया। भारत , नेपाल के दूर-दराज , गांव-गांव में यह समाज फैलकर छोटी-छोटी दुकानें लेकर कारोबार करने लगा। यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा कि इन क्षेत्रों में जरूरी खाद्य प्रदार्थ पहुंचाने में इस समाज की मह्त्वपुर्ण भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। सादगी, कष्ट-सहिष्णुता, सहन-शक्ति और परिश्रमशीलता के ऎसे गुण हैं, जिनकी वजह से इस समाज ने प्रवास में रह्ते हुवे भी अदभुत साधनों का निर्माण कर लिया। इस समाज में जोखिम उठाने की भी अद्दभुत क्षमता को भी इंकारा नहीं किया जा सकता। धीरे-धीरे इस समाज ने शिक्षा के क्षेत्र में भी काफी सुधार किया। समाजिक नवचेतना का वृ्हत् आन्दोलन संगठित रूप से चला। सैकडो़-हजारों कार्यकर्त्ताओं के अथक प्रयासों से रूढि़वादी व्यवस्था में काफी सुधार आया, मसलन पर्दा-विवाह, बालिका शिक्षा, विधवा विवाह, मृ्तक भोज जैसे समाज सुधार के कार्यक्रम लिये गये । राष्ट्रीय स्वाधीनता और विकास के आन्दोलनों में भाग लिया। व्यापार के साथ-साथ इस समाज में दानशीलता की भावना ने राजस्थान से कई गुणा अधिक प्रवास में स्कूल, कालेज, अस्पताल, धर्मशालायें, आदि का निर्माण कर राष्ट्र के विकास में अपना महत्व्पूर्ण योगदान भी दिया।
व्यापार-व्यवसाय की एकांतिकता के कारण लक्ष्य और व्यवहार के सम्बन्ध में इस समाज के लोगों में जो कतिपय दोष और दुर्बलतायें रही, उनकी वजह से कई दफा समाज को भ्रान्तियों का भी शिकार होना पडा़ है, जिसके कुछ कारण इसकी आर्थिक समृ्ध्दि से अनायास उत्पन्न होनेवाली दूसरे समाज के लोगों की सहज ईर्ष्या-भावना भी है। निःसंदेह समाज के कुछ लोगों के कुप्रयासों से समुचे समाज को बदनामी का सामना करना पड़ता है, किन्तु समाज अब अपनी स्थिति के प्रति जागरूक होकर नवनिर्माण की ओर अभिमुख एवं यत्नशील है।
1963 में प्रकाशित लेख , "मारवाडी़ समाज चुनौती और चिन्तन" से साभार
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