संपादक-शम्भु चौधरी

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लोकगीत ऐ प्रांण, आपणी संस्क्रति रा आपरी संस्कृति अर परम्परा रै पांण राजस्थान री न्यारी पिछाण। रणबंका वीरां री आ मरुधरा तीज-तिवारां में ई आगीवांण। आं तीज-तिवारां नै सरस बणावै अठै रा प्यारा-प्यारा लोकगीत। जीवण रो कोई मौको इस्यो नीं जद गीत नीं गाया जावै। जलम सूं पैली गीत, आखै जीवण गीत अर जीवण पछै फेर गीत। ऐ गीत इत्ता प्यारा, इत्ता सरस कै गावणिया अर सुणणियां रो मन हिलोरा लेवण लागै।

आपणी भाषा आपणी बात एक दिल से जुड़े मुद्दे के रूप में उदयपुर में `मायड़ भाषा´ स्तंभ से शुरू किया और राजस्थान की भाषा संस्कृति की रक्षा के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को आतुर लोगों ने मान लिया कि संवैधानिक दर्जा दिलाना अब भास्कर का मुद्दा हो गया है। - कीर्ति राणा, संपादक - दैनिक भास्कर ( श्रीगंगानगर संस्करण)

श्री अरूण डागा का परिचय इन दिनों संगीत की दुनिया में प्राइवेट एलबम की धूम मची हुई है। इसके लिये किसी भी गायक को अपनी पूरी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिलता है। आज यहाँ हम कोलकाता के श्री अरूण डागा का परिचय आप सभी से करवातें हैं मूझे याद है जब श्री अरूण जी, गोपाल कलवानी के अनुरोध पर कोलकाता के 'कला मंदिर सभागार' में मारवाड़ी युवा मंच के एक कार्यक्रम- "गीत-संगीत प्रतियोगिता" में जैसे ही गाना शुरू किये सारा हॉल झूमने लगा था। once more... once more...

यह क्षेत्र इस्लामी कट्टरपंथियों के हाथ मुम्बई पर हुए आतंकवादी आक्रमण से एक सन्देश स्पष्ट है कि अब यदि समस्या को नही समझा गया और इसके जेहादी और इस्लामी पक्ष की अवहेलना की गयी तो शायद भारत को एक लोकतांत्रिक और खुले विचारों ......

झारखंड प्रान्त: स्थापना दिवस की तैयारी शुरू जमशेदपुर। अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच रजत जयंती वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस पल को यादगार बनाने के लिए मंच के सदस्य तैयारियों में जुट गये हैं। .......

सेटन हॉल यूनिवर्सिटी में गीता पढ़ना अनिवार्य अमेरिका की सेटन हॉल यूनिवर्सिटी में सभी छात्रों के लिए गीता पढ़ना अनिवार्य कर दिया गया है।इस यूनिवर्सिटी का मानना है कि छात्रों को सामाजिक सरोकारों से रूबरू कराने के लिए गीता से बेहतर कोई और माध्यम नहीं हो सकता है।......

डॉ.श्यामसुन्दर हरलालका निर्विरोध नये अध्यक्ष पूर्वोत्तर मारवाड़ी सम्मेलन की प्रादेशिक कार्यकारिणी बैठक एवं प्रादेशिक सभा की बैठक नगाँव में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुई। बैठक को सफल बनाने में उपस्थित सभासदों का योगदान सराहनीय रहा। सभा में आगामी सत्र वर्ष 2009 एवं 2010 हेतु गौहाटी के डॉ.श्यामसुन्दर हरलालका को निर्विरोध नये अध्यक्ष के रूप में चुने गये।.......

उत्कल प्रान्तीय मारवाड़ी युवा मंच उत्कल प्रान्तीय मारवाड़ी युवा मंच की सप्तम प्रान्तीय कार्यकारिणी समिति की चतुर्थ बैठक एवं 19वीं प्रान्तीय सभा ‘प्रगति-2008’’ भारी सफलता के साथ सह राउरकेला शाखा के अतिथ्य में सम्पन्न हुई। ......

परिचय: श्री श्यामानन्द जालान 13 जनवरी 1934 को जन्मे श्री जालान का लालन पालन एवं शिक्षा-दीक्षा मुख्यतः कलकत्ता एवं मुजफ्फरपुर में ही हुई हैं। बचपन से राजनैतिक वातावरण में पले श्री जालान के पिता स्वर्गीय श्री ईश्वरदास जी जालान पश्चिम बंगाल विधान सभा के प्रथम अध्यक्ष थे।

दक्षिण दिल्ली शाखा के सौजन्य में 18 जनवरी 2009 को ’’ट्रेजर हण्ट कार रैली’’अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच द्वारा चलाये जा रहे देशव्यापी कन्या भ्रूण संरक्षण अभियान के अन्तर्गत देशभर में मंच की शाखाओं द्वारा विविध प्रकार के कार्यक्रमों के माध्यम से जन-जागृति अभियान चलाया जा रहा है।

Rajiv Ranjan Prasadसाहित्य शिल्पी ने अंतरजाल पर अपनी सशक्त दस्तक दी है। यह भी सत्य है कि कंप्यूटर के की-बोर्ड की पहुँच भले ही विश्वव्यापी हो, या कि देश के पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण में हो गयी हो किंतु बहुत से अनदेखे कोने हैं, जहाँ इस माध्यम का आलोक नहीं पहुँचता। यह आवश्यकता महसूस की गयी कि साहित्य शिल्पी को सभागारों, सडकों और गलियों तक भी पहुचना होगा। प्रेरणा उत्सव इस दिशा में पहला किंतु सशक्त कदम था।

हिन्दुस्तानी एकेडेमी का साहित्यकार सम्मान समारोह: Dr.Kavita Vachaknavee

इलाहाबाद, 6 फ़रवरी 2009 । "साहित्य से दिन-ब-दिन लोग विमुख होते जा रहे हैं। अध्यापक व छात्र, दोनों में लेखनी से लगाव कम हो रहा है। नए नए शोधकार्यों के लिए सहित्य जगत् में व्याप्त यह स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक है।"">

मंच एक कार्यशाला है

मारवाड़ी युवा मंच एक कार्यशाला है जहाँ समाज के नवयुवकों को न सिर्फ सामाजिक भावनाओं के साथ जोड़ा जाता है साथ ही उनके व्यक्तित्व को उभारने हेतु एक मंच भी दिया जाता है। मंच को एक शिक्षण संस्थान की तरह कार्य करने की जरूरत है न कि एक राजनीति मंच की तरह, इसके अनुभवी युवा वर्ग को मात्र एक शिक्षक की भूमिका अपनाने की जरूरत है। जबकि इसके विपरीत अनुभवी युवागण अधिकतर मंच की राजनीति में संलग्न पाये जातें हैं।

June 28, 2009

मातृभाषा की मान्यता से होगा संस्कृति का संरक्षण


- डॉ. राजेश कुमार व्यास


ओबामा सरकार की कार्यकारी शाखा के लिये जारी नौकरियों के आवेदन के लिए दुनियाभर की जिन 101 भाषाओं को चुना गया है, उनमें 20 क्षेत्रीय भाषाओं की जानकारी रखने वालों को आवेदन हेतु पात्र माना गया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन 20 क्षेत्रीय भाषाओं में मारवाड़ी का स्थान भी है। भले ही भारतीय संविधान की 8 वीं अनुसूची में सम्मिलित 22 भाषाओं में राजस्थानी का स्थान नहीं है परन्तु विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र ने राजस्थानी को मान्यता देकर यह साबित कर दिया है कि राजस्थानी विश्व की किसी भी अन्य भाषा से कमतर नहीं है। राजस्थानी के साथ यह विडम्बना ही है कि बोलियों की राजनीति में अभी भी यह राज-काज की भाषा के रूप में संविधान की आठवी अनुसूची में स्थान नहीं पा सकी है, बावजूद इसके कि इसका समृद्ध प्राचीन साहित्य है, समृद्ध शब्द कोश है और सबसे बड़ी बात व्यापक स्तर पर इसकी मान्यता के लिए समय-समय पर भाषाविदों ने भी एकमत राय व्यक्त की है।
जो लोग राजस्थानी की मान्यता के विरोधी हैं, उन्हें इस बात को समझ लेना चाहिए कि राजस्थानी की मान्यता से किसी और भाषा का अहित नहीं होने वाला है और जो लोग बोलियों के नाम पर राजस्थानी की मान्यता पर प्रश्न उठाते हैं, उन्हें भी भाषाविदों की इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी भाषा की जितनी अधिक बोलियां होती हैं, वह भाषा उतनी ही अधिक समृद्ध मानी जाती है। राजस्थानी के साथ यही है।
याद पड़ता है, इन पंक्तियों के लेखक ने कमलेश्वर पर राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी की पत्रिका ‘जागती जोत’ में एक संस्मरण वर्ष 2000 में लिखा था। संस्मरण कमलेश्वर को पढ़ने के लिए भेजा गया। संस्मरण पढ़ने के बाद इन पंक्तियों के लेखक को कमलेश्वर ने जो पत्र लिखा, उनकी पंक्तियां देखें, ‘कृपणता हूं तो राजस्थानी समझ में आती है। आखिर हिन्दी को अपना रक्त संस्कार राजस्थानी, शौरसेनी और ब्रज ने ही दिया है। अपनी मातृभाषाओं के विसर्जन से हिंदी प्रगाढ़ और शक्तिशाली नहीं होगी, हमें अपनी मातृभाषाओं को जीवित रखना पड़ेगा, जहां से हिंदी की शब्द सम्पदा संपन्न होगी। यह बिटिया बेटे को ब्याहने वाला रिश्ता है-जो नाती-पोतों में हमें अपनी निरंतरता देता है।’
कमलेश्वर ही क्यों विश्वकवि रवीन्द्र नाथ टैगौर ने भी राजस्थानी के दोहे सुनकर कभी कहा था, ‘‘रवीन्द्र गीतांजली लिख सकता है, डिंगल जैसे दोहे नहीं।’ भाषाशास्त्री सुनीति कुमार चटर्जी, आशुतोष मुखर्जी राजस्थानी भाषा के समृद्ध कोश और इसकी शानदार परम्परा के कायल होते हुए समय-समय पर राजस्थानी की मान्यता की हिमायत करते रहे हैं। यही नहीं भाषाओ के विकास क्रम के अंतर्गत राजस्थानी का प्रार्दुभाव अपभ्रंश में, अपभ्रंश की उत्पत्ति प्राकृत तथा प्राकृत का प्रारंभ संस्कृत और वैदिक संस्कृत की कोख में परिलक्षित होता है। इन सबके बावजूद राजस्थानी को मान्यता नहीं मिलना क्या समय की भारी विडंबना नहीं है?
यहां यह बात गौरतलब है कि आरंभ में संविधान की आठवी अनुसूची में जिन 14 भाषाओं का उल्लेख किया गया, उनका स्पष्टतः कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था परन्तु राजस्थानी की मान्यता का तो आरंभ से ही वैज्ञानिक आधार रहा है। इसे बोलने वालों की संख्या के साथ ही भाषा की क्षमता और साहित्य की समृद्धि को ही यदि आधार माना जाए कि राजस्थानी प्रारंभ में ही संविधान की आठवी अनुसूची में सम्मिलित हो जानी चाहिए थी। ऐसा भी नहीं है कि राजस्थानी की मान्यता के लिए प्रयास नहीं हो रहे हैं। राजस्थान विधानसभा में वर्ष 1956 से ही राजस्थानी को राज-काज और शिक्षा की भाषा के रूप में मान्यता के प्रयास हो रहे हैं परन्तु इन प्रयासों को अमलीजामा पहनाने की दिशा में कोई समर्थ स्वर नहीं होने के कारण यह भाषा राजनीति की निरंतर शिकार होती रही है। राज्य विधानसभा में पहली बार 16 मई 1956 को विधायक शम्भुसिंह सहाड़ा ने राजस्थानी भाषा प्रोत्साहन के लिए जो अशासकीय संकल्प रखा उसमें राजस्थान की पाठशालाओं में राजस्थानी भाषा और तत्संबंधी बोलियों की शिक्षा देने पर जोर देने हेतु तगड़ा तर्क दिया गया था। संकल्प में कहा गया था कि बच्चे घरों मंे अपने माता-पिता के साथ जिस भाषा में बात करते हैं, उसी में शिक्षा दी जानी चाहिए, इसी से वे पाठ्यपुस्तकों में वर्णित बातों को प्रभावी रूप में ग्रहण कर पाएंगे।
तब से आज 53 वर्ष हो गए हैं, राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए अब भी यही तर्क है। मैं तो बल्कि यह भी मानता हूं कि शिक्षा क्षेत्र में राजस्थान का तेजी से विकास नहीं होने का प्रमुख कारण भी यही है कि यहां की भाषा व्यवहार और शिक्षा की भाषा नहीं बन पायी। यह कितनी विडम्बना की बात है कि लगभग 1 हजार ई. से 1 हजार 500 ई. के समय के परिपे्रक्ष्य को ध्यान में रखकर जिस भाषा के बारे में गुजराती भाषा एवं साहित्य के मर्मज्ञ स्व. झवेरचन्द मेघाणी ने यह लिखा कि व्यापक बोलचाल की भाषा राजस्थानी है और इसी की पुत्रियां फिर ब्रजभाषा, गुजराती और आधुनिक राजस्थानी का नाम धारण कर स्वतंत्र भाषाएं बनी। उस भाषा की संवैधानिक स्वीकृति के बारे में निरंतर प्रश्न उठाए जा रहे हैं।
एक प्रश्न यह हो सकता है कि संविधान की मान्यता के बगैर क्या कोई भाषा अपना अस्तित्व बनाकर नहीं रह सकती। यह सच है कि भाषा सरकारें नहीं बनती, वे लोग बनाते हैं जो इसका प्रयोग करते हैं परन्तु इसका व्यवहार में प्रयोग तो तब होगा न जब यह शिक्षा का माध्यम बनेगी, जब राजकाज, विधानसभाओं, अदालतों में इस भाषा का प्रयोग उचित समझा जाएगा। और यह सब तब होगा जब सरकार इसे मान्यता प्रदान करेगी। अभी तो स्थिति यह है कि राजस्थानी भाषा को यदि विधानसभा, अदालत या अन्य किसी राज के काज में उपयोग में लिया जाता है तो पहले उसकी वैधानिकता को ढूंढा जाता है। घर में राजस्थानी भाषा बोलने वाले बाहर हिन्दी या अंग्रेजी भाषा के उपयोग के लिए मजबूर हैं, ऐसे में बहुत से शब्द धीरे-धीरे प्रयोग में आने बंद हो रहे हैं। इन पंक्तियों के लेखक जैसे बहुत से हैं जिनका आरंभिक परिवेश राजस्थानी का रहा है, आज भी पति-पत्नि हम राजस्थानी में बात करते हैं परन्तु बच्चों से हिन्दी में बात करने के लिए मजबूर हैं। कारण यह है कि वे ठीक से विद्यालय में हिन्दी यदि नहीं बोल पाएंगे तो जिस भाषा में वे शिक्षा ले रहे हैं, उन्हें बोलने वाले दूसरे बच्चों के साथ उन्हें हिन भावना जो महसूस होगी। राजस्थान में ही गांवो, छोटे शहरों से राजधानियाँ और बड़े शहरों में आए अधिकाशं राजस्थानी बोलने वालों के साथ यही हो रहा है। उन्हें अपनी भाषा से लगाव है, प्यार है परन्तु इस बात की लगातार गम भी है कि उनके बाद इस भाषा को उनके बच्चे नहीं बोलेंगे, व्यवहार में नहीं लंेगे। क्या ऐसा तब संभव होता जब उन बच्चों को भी राजस्थानी में ही पढ़ने का मौका मिलता?
भाषा निरंतर प्रयोग से समृद्ध होती है परन्तु राजस्थानी का यह दुर्भाग्य है कि प्रतिवर्ष गांवों, सुदूर ढ़ाणियों से अपनी मेहनत से पढ़-लिखकर शहर में आकर नौकरी करने वाले राजस्थानी भाषी मजबूरन अपनी दूसरी पीढ़ी के साथ राजस्थानी में संवाद नहीं कर पाते हैं, ऐसे दौर में कब तक राजस्थानी गांवो के अलावा शहरों में बची रहेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। राजस्थानी की मान्यता को क्यों इस नजरिए से नहीं देखा जा रहा? क्यों राजस्थानी भाषा के बाद जो भाषाएं विकसित हुई उन्हें मान्यता मिल गयी परन्तु राजस्थानी आज भी मान्यता की बाट जो रही है? क्यों बोलियों के नाम पर राजस्थानी के साथ यह अन्याय हो रहा है? हकीकत यह है कि राजस्थानी की मान्यता इसके अधिकाधिक लोक प्रयोग के लिए जरूरी है, इसलिए भी कि इसी से मुद्रण और प्रकाशन, पठन-पाठन और बोलने की आदत का इसका अधिक विकास होगा और यही इस भाषा की आज की जरूरत है। इसी से राजस्थानी के समृद्ध प्राचीन साहित्य को भी बचाया जा सकेगा।
बहरहाल, भारतीय संविधान के परिप्रेक्ष्य में ही राजस्थानी की मान्यता को देंखे। संविधान की मूल अवधारणा लोकतांत्रिक प्रस्थापना में है। संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि अगर एक हिस्से की भाषा कोई है तो उसको बचाया जाए। राजस्थानी 9 करोड़ लोगों की भाषा है, इसे बचाना, इसकी मान्यता, संरक्षण इसलिए जरूरी है। राज्य विधानसभा में वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के मुख्यमंत्रीत्व काल में ही वर्ष 2003 में राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनूसूची में सम्मिलित करने का संकल्प बगैर किसी बहस के ध्वनि मत से जब पारित किया जा चुका है तो फिर केन्द्र सरकार के स्तर पर इस पर अब कोई प्रश्न ही नहीं रहना चाहिए।
अभी कुछ समय पहले ही एक पुस्तक प्रदर्शनी में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा वर्ष 1959 में जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन की प्रकाशित ‘भारत का भाषा सर्वेक्षण’ पुस्तक मैं खरीदकर लाया। उत्सुकतावश राजस्थानी के बारे में इसमें कुछ लिखा होने के लिए जब पन्ने खोलें तो पढ़कर बेहद अचरज हुआ। ग्रियर्सन ने इसमें राजस्थान की भाषा राजस्थानी बताते हुए स्पष्ट कहा है-‘‘मारवाड़ी के रूप में, राजस्थानी का व्यवहार समस्त भारतवर्ष में पाया जाता है।’’ इसी में एक स्थान पर राजस्थानी भाषा और उसकी बोलियों पर विस्तार से लिखते हुए स्पष्ट कहा है-‘‘पंजाबी के ठीक दक्षिण में लगभग 1 करोड़ साढ़े बयासी लाख राजस्थानी भाषा-भाषियों का क्षेत्र है जो इंगलैण्ड तथा वेल्स की आधी जनसंख्या के बराबर है। जिस प्रकार पंजाबी उत्तर-पश्चिम में मध्य देश की प्रसारित भाषा का प्रतिनिधित्व करती है, उसी प्रकार राजस्थानी उसके दक्षिण-पश्चिम में प्रसारित भाषा का प्रतिनिधित्व करती है।’’
ग्रियर्सन ने भाषा सर्वेक्षण का यह कार्य तब किया था जब भारतीय संविधान बना भी नहीं था, बाद में अंग्रेजी से यह पुस्तक हिन्दी में अनुवादित होकर प्रकाशित हुई। सोचिए जिस भाषा को सर्वेक्षण में राजस्थानियों का प्रतिनिधित्व की भाषा कहा गया, क्या वह संविधान की आठवी अनुसूची में राजस्थान का प्रतिनिधित्व करने योग्य नहीं है? वर्ष 1967 से लेकर अब तक बहुत सारी भाषाएं संविधान की 8 वीं अनुसूची में जोड़ी गयी है। यह सच में विडम्बना की बात है कि जिस भाषा की लिपि से आधुनिक देवनागरी और दूसरी अन्य भाषाओं की लिपियां बनी है और जिसका अपना व्याकरण और विश्व के विशालतम शब्दकोशों में से एक जिसका शब्दकोश है, ऐसी भाषा को संविधान की 8 वीं अनुसूची में जुड़ने का अभी भी इन्तजार है।
राजस्थानी की मान्यता में किसी का कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं है। इसका अर्थ इतना ही है कि इससे वर्षो पुरानी इस भाषा का संरक्षण हो सकेगा। ऐसे दौर में जब मातृभाषाओं पर विश्वभर में संकट चल रहा है, इस दिशा में गंभीर चिंतन कर त्वरित कार्यवाही की जानी समय की आवश्यकता भी है। इसलिए भी कि भाषा, साहित्य और संस्कृति से व्यक्ति अपनी जड़ों से जुड़ा रहता है। राज की मान्यता भाषा के प्रयोग को व्यापक स्तर पर प्रयोग की स्वीकृति देती है। इसी से फिर स्थान विशेष की संस्कृति का भी अपने आप ही संरक्षण होता है। क्यों नहीं राजस्थान की संस्कृति के संरक्षण की सोच के साथ भाषा की मान्यता पर सरकार चिंतन करे।


- डॉ. राजेश कुमार व्यास
III/39ए गाँधीनगर, न्याय पथ,
जयपुर- 302 015 (राजस्थान)
e-mail : dr.rajeshvyas5@gmail.com

66 सालों में सिर्फ सौ राजस्थानी फिल्में


कछुआ चाल वाली कहावत शायद इसी के लिए बनाई गई थी। क्षेत्रीय सिनेमा की दुनिया में राजस्थानी फिल्में आज बहुत ही सुस्त चाल में चल रही हैं और यह चाल भी ऐसी की 100 का आंकड़ा छूने में 66 वर्ष लग गये। इस बढ़ती उम्र के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि हमारा सिनेमा अब परिपक्व हो गया है। साल-दर-साल बचकानी फिल्में और हर नई फिल्म के साथ दर्शकों की दम तोड़ती उम्मीदें। पहली राजस्थानी फिल्म ‘नजराना’ 1942 में आई थी और अब 2008 में ‘ओढ़ ली चुनरिया रे’ सौवीं फिल्म के रूप में सैंसर सर्टिफिकेट हासिल किया है। हिन्दी, तमिल या तेलुगु में इनसे दुगुनी फिल्में तो एक साल में बन जाती है। इनमें कई फिल्में तो ऐसी होती है जो दुनिया भर में कामयाबी का परचम लहराती है। पर राजस्थानी में अगर जगमोहन मूंधड़ा की फिल्म ‘बवंडर’ को अलग कर दें तो 66 साल में अंतर्राष्ट्रीय स्तर तो दूर, राष्ट्रीय स्तर की भी कोई फिल्म नहीं बन पाई है। भंवरी देवी प्रकरण 2001 में बनी फिल्म ‘बवंडर’ ने राजस्थानी सिनेमा को न सिर्फ पहली बार विदेशों तक पहुँचाया, बल्कि कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिबलों में चर्चा और अवार्ड हासिल कर राजस्थान का परचम फहराया है। अभी के इस दौर में भोजपुरी फिल्में देश-विदेशों में जो धुंआधार प्रदर्शन कर रही हैं, वो जगजाहिर है। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि भोजपुरी सिनेमा ने यह बुलंदी अपने बलबूते हासिल की है, किसी सरकारी सहायता और टैक्स-फ्री की सुविधा के बगैर रविकिशन और मनोज तिवारी जैसे नये अभिनेताओं के जरिये, भोजपुरी भाषा बोलनेवाले दर्शकों के व्यापक समर्थन के दम पर।
भोजपुरी भाषा बोलने वालों की तरह राजस्थानी बोलने वाले इस देश और दुनिया भर में फैले हुए हैं। वे जहां भी रह रहे हैं, वहां वर्षों से अपनी जमीन, जड़ और जुबान से जुड़े हुए हैं। अपने घरों को संस्कारों से सजाकर रखते हैं तथा अपनी कला-संस्कृति से प्यार करते हैं। राजस्थानी में साफ-सुथरा, सुरुचिपूर्ण मनोरंजन देखने-सुनने को मिले, तो उसे भी उतने ही चाव से अपना सकते हैं। पर हिन्दी और दूसरे प्रादेशिक सिनेमा से राजस्थानी सिनेमा इतना पीछे और पिछड़ा है कि लगता है यह दौड़ से ही बाहर हो गया है। पर इच्छाशक्ति, चाह, लगाव और साहस हो तो दर्शकों का ‘सपोर्ट पाकर, टीवी म्यूजिकल शो के प्रतियोगी की तरह फिर इस रेस में शामिल हो सकता है। राजस्थानी गीत-संगीत में रचे-बसे ‘बीणा’ के अलबमों को देश और दुनिया में जितनी लोकप्रियता मिली है, उससे ही यह बात साबित हो जाती है। राजस्थानी सिनेमा से जुड़े हुए फिल्मकारों को इस बात पर ईमानदार प्रयास करने की जरुरत है।
1942 से 2008 तक बनी हुई क्रमवार राजस्थानी फिल्में
1. नज़राना 2. बाबासा री लाडली 3. नानीबाई कौ मायरौ 4. बाबा रामदेव पीर 5. बाबा रामदेव 6. धणी-लुगाई 7. ढोला-मरवण 8. गणगौर 9.गोपीचंद-भरथरी 10. गोगाजी पीर 11. लाज राखो राणी सती 12. सुपातर बीनणी 13. वीर तेजाजी 14. गणगौर 15. सती सुहागण 16. म्हारी प्यारी चनणा 17. सुहागण रौ सिणगार 18. पिया मिलण री आस 19. चोखौ लागै सासरियौ 20. राम-चनणा 21. सावण री तीज 22. देवराणी-जेठाणी 23. डूंगर रौ भेद 24. नणद-भौजाई 25. थारी म्हारी 26. जय बाबा रामदेव 27. धरम भाई 28. बिकाऊ टोरड़ौ/अच्छायौ जायौ गीगलौ 29. करमा बाई 30. नानीबाई को मायरौ 31. बाई चाली सासरिये 32. ढोला-मारु 33. रामायण 34. जोग-संजोग/बाई रा भाग 35. बाईसा रा जतन करो 36. सतवादी राजा हरिश्चंन्द्र 37. घर में राज लुगायां कौ 38. रमकूड़ी-झमकूड़ी 39. बेटी राजस्थान री 40. चांदा थारै चांदणे 41. मां म्हनै क्यूं परणाई 42. बीनणी बोट देणनै 43. माटी री आण 44. सुहाग री आस 45. दादोसा री लाडली 46. वारी जाऊं बालाजी 47. भोमली 48. भाई दूज 49. बंधन वचनां रौ 50. मां राखो लाज म्हारी 51. जय करणी माता 52. चूनड़ी 53. लिछमी आई आंगणे 54. बीनणी 55. रामगढ़ की रामली 56. खून रौ टीकौ 57. जाटणी 58. डिग्गीपुरी का राजा 59. बीरा बेगौ आईजै रे 60. गौरी 61. बालम थारी चूनड़ी 62. बेटी हुई पराई रे 63. बाबा रामदेव 64. दूध रौ करज 65. बीनणी होवै तौ इसी 66. बापूजी नै चायै बीनणी 67. माता राणी भटियाणी 68.राधू की लिछमी 69. छम्मक छल्लो 70. लाछा गूजरी 71. जियो म्हारा लाल 72. देव 73. सरूप बाईसा 74. जय नाकोड़ा भैरव 75. सुहाग री मेहंदी 76. छैल छबीली छोरी 77. कोयलड़ी 78. जय सालासर हनुमान 79. गोरी रौ पल्लौ लटकै 80. म्हारी मां संतोषी 81. बवंडर 82. मां राजस्थान री 83. जय जीण माता 84. मेंहदी रच्या हाथ 85. चोखी आई बीनणी 86. ओ जी रे दीवाना 87. मां-बाप नै भूलजो मती 88. खम्मा-खम्मा वीर तेजा 89. लाडकी 90. जय श्री आई माता 91. लाडलौ 92. पराई बेटी 93. प्रीत न जाणै रीत 94. मां थारी ओळू घणी आवै 95. जय मां जोगणिया 96. जय जगन्नाथ 97. कन्हैयो 98. म्हारा श्याम धणी दातार 99. मां भटियाणीसा रौ रातीजोगौ 100. ओढ़ ली चुनरिया।
कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
100 में से 6 फिल्में दूसरी भाषाओं से राजस्थानी में डब्ड। वीडियो फाॅमेंट में बनी हुई फिल्में शतक में शामिल नहीं है। साल भर में सबसे अधिक 7 फिल्में सन 1985 में निर्मित। पहली लोकप्रिय और हिट फिल्म ‘बाबा री लाडली’ (1961)। दूसरी पारी की पहली सुपर हिट फिल्म ‘सुपातर बीनणी’ (1981)। आल टाईम हिट फिल्म ‘बाई चाली सासरिये’ (1988) सबसे लम्बी अवधि की फिल्म ‘गौरी’ (1993): अवधि: 3 घंटा 12 मिनट। सबसे छोटी अवधि की फिल्म ‘लाज राखो राणी सती’ (1973) अवधि: 1 घंटा 54 मिनट।end