प्रत्येक समाज, प्रत्येक देश में कभी-कभी ऐसी घटनाएं होती हैं, जो आने वाले दौर को प्रेरित एवं प्रभावित कर जारी हैं। ऐसी ही एक घटना मारवाड़ी समाज में हुई है, मारवाड़ी युवा मंच के रूप में। किसी भी समाज में युवके के ऐसे संगठन रोजाना नहीं बना करते। परमपिता की कृपा, पुरखों के पुण्य-प्रताप एवं अनगिनत युवाओं की लगन व साधन के फलस्वरूप ऐसा हमारे दौर में हुआ है। ऐसे संगठन को चलाने के लिए एक बड़े अनुशासन व नैतिकता की जरूरत होती है। इसे क्लब के तौर-तरीकों से नहीं चलाया जा सकता है। इसे त्याग, समर्पण और लगन से ठोस रूप दिया जाता है। एक बड़ी सोच, विशाल ह्रदय और गहरी संवेदना चाहिए, इसके लिए। इसी भावना से मंच अब तक आगे बढ़ा है। इस वर्ष नव राष्ट्रीय अधिवेश आयोजित होने जा रहा है और अगले वर्ष मंच का रजत जयंती वर्ष भी है। अतः संगठन व गतिविधियों संबंधी अनेक मुद्दों पर चर्चा वांछनीय है। फिलहाल निम्नलिखित विन्दुओं पर संगठन चर्चा और गंभीर चिंतन, मेरी दृष्टि में अवश्य होना चाहिए।
प्रथमः हमें अहंकार, अति महात्वाकांक्षा और शार्टकट की कल्चर को करोड़ों मील दूर रखना चाहिए। ये तीनों किसी भी संगठन के लिए दीमक के समान हैं। कोई व्यक्तित्व कितना भी बड़ा क्यों न हो, संगठन से बड़ा नहीं हो सकता है। पेड़ कितना भी बड़ा हो, आकाश से नीचे ही रहता है। मंच एक बड़ा कैनवास है, जिसमें हम हमारा प्रतिबिंब देखते हैं। संगठन के संदर्भ में कहें तो भाग्य एक सदस्य का नहीं, संगठनों का हुआ करता है।
द्वितीयः आज का युग अर्थ का है। धन को जरूरत से अधिक महत्व दिया जा रहा है, लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि संगठन पर धन हावी न हो जाए। वह मंच रूपी मंदिर का पुरोहित नहीं हो सकता। मंच में धन की आवश्यकता दो तरह के कार्यों से होती है – 1) संगठन और 2) गतिविधियां।
संगठन का कार्य सदस्यों का मामला है, अतः वह पैसा सदस्यों के पास से आना चाहिए और गतिविधियों का ताल्लुक समाज से है, अतः यह धन समाज से आना चाहिए। पैसे की ताकत संगठन के स्वरूप या उसके निर्णयों को प्रभावित नहीं करनी चाहिए। सदस्यों की शक्ति, जिसे हम युवा शक्ति कहते हैं, का स्थान धन-शक्ति नहीं ले सकता है।
तृतीयः हमारे समाज को सक्रिय राजनीति में अवश्य उतरना चाहिए, लेकिन मंच एक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था है, अतः वह किसी भी राजनीतिक-दल विशेष का आधार नहीं बन सकता, किसी राजनितिक नेता का अनुयायी नहीं हो सकता। यह रोग मंच में प्रवेश नहीं करना चाहिए।
चतुर्थः मंच की शाखाओं को प्रांतों की नीतियों के अनुरूप और प्रान्तीय इकाइयों को राष्ट्र के रूप-रेखा के अंतर्गत काम करना चाहिए। ये एक दूसरे के प्रतिद्वंदी नही होने चाहिए। शाखा की प्रांत से अलग और प्रांत की राष्ट्र से अलग पहचान बनाने का कोई भी प्रयास मंच के लिए घातक होगा। हमें यह विवेक जागृत रखना होगा।
पंचमः मंच के तीनों स्तर पर पूर्व पदाधिकारी एवं सदस्यगणों का वर्तमान पदाधिकारी एवं सदस्यगणों के साथ समन्वय जरूरी है। मंच की समुचित प्रगति के लिए यह अपरिहार्य है। भूतकाल, वर्तमान का विरोधी नहीं होता। दोनों का आमना-सामना होने से भविष्य अंधकारमय होने की आशंका होती है। अतः पुराने युवाओं का अनुभव, वर्तमान का उत्साह और नारी शक्ति की ऊर्जा इन तीनों का समन्वय ही मंच को वांछित ऊचाई प्रदान कर सकता है। हम यदि जड़ों से कट जाएंगे तो बिखर जाएंगे, दिशाहीन हो जाएंगे। हर स्तर पर समय-समय पर चिन्तन बैठकें आयोजित कर यह कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।
षष्टमः साथ चलने या साथ रहने के चार स्तम्भ होते हैं – त्याग, सहनशीलता, पारस्परिक विश्वास और वाणी पर संयम। इनमें से एक भी स्तम्भ कमजोर होने पर साथ कमजोर हो सकता है। जहां भी संबंधों में दरार आई, इनमें से ही कोई स्तम्भ विचलित हुआ है। इसकी मजबूती के अनुपात में हमारा साथ मजबूत होता है। इसका कोई विकल्प नहीं है, यह बात भी हमें ध्यान रखना होगा।
सप्तमः मंच का स्वरूप विराट होता जा रहा है। अतः इसके ढांचे पर भी गहन चिन्तन समय की मांग है। क्या वर्तमान ढांचे से आगे बढ़ सकते हैं या इसमें फेर-बदल जरूरी है। इस पर भी विचार प्रक्रिया आरंभ होनी चाहिए। खुशी की बात है कि तीनों स्तर पर मंच के पदाधिकारी एवं सदस्यगण सजग एवं जिम्मेदार हैं। वर्तमान का प्रिय प्रहरी जागरूक है। यूं तो मैं आश्वस्त हूं, लेकिन जो खतरे मंच को हानि पहुंचा सकते हैं, उनकी तरफ सावधान करना मैनें अपना कर्तव्य समझकर यह विनम्र प्रयास किया है।
मंच का विराट स्वरूप देखते हुए हमें हमारा व्यक्तित्व इतना विकसित करना होगा कि मंच उसमें अपना भविष्य देख सके। हमें मंच की आत्मा तक पहुंचना होगा, विभिन्न प्रांतों के मंच सदस्यं का मिजाज समझना होगा, उन्हें अपना बनाना होगा। हमें स्वयं को तपाकर उस योग्य बनाना होगा। केवल अधिकारों की बात करके अपने-अपने कुएं बनाकर, कम्पार्टमेंटल चिन्तन या चालाकियों से ऐसा न कभी हुआ है और न कभी होगा।
मंच के माध्यम से हमें हमारे समाज को आदर्श समाज बनाना होगा। हमारे समाज के इतिहास की किताब के कुछ पृष्ठ आज भी अनलिखे हैं, वे पृष्ठ हमें लिखने होंगे। एक-एक युवा में इतनी क्षमता है कि वह ऐसा कर सकता है, मगर शर्त है कि वह अतिमहात्वाकांक्षा, अहंकार, मंच से अलग अपनी पहचान और शार्टकट की संस्कृति का अविलंब त्याग करें। सरलता और विनम्रता को अपनी जीवन और कार्यशैली का मुख्य अंग बना लें।
मेरे मंच के युग प्रहरी, मंच की युवा ऊर्जा देश, समाज व मंच को नए मुहावरे, नए मायने और नई ऊंचाईयां देने के लिए मेरी इन पंक्तियों के साथ मैं आप सबका आह्वान करते हुए मेरा प्रणाम निवेदित करता हूं –
फौलादी हो मांस-पेशियां, बच्चे जैसा निश्छल मन,
मेधा हो ऋषियों-मुनियों जैसी, तभी धन्य होता यौवन।
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